नयी दिल्ली। संस्कृति मंत्रालय (Ministry of Culture) के स्वायत्त संस्थान इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (IGNCA) ने मंगलवार को एक विशेष और अनूठी का आयोजन किया।
इस प्रदर्शनी में भारतीय विज्ञापन के चार दशकों (1950-1990) की अनमोल धरोहर को प्रदर्शित किया गया है। इस अवसर पर एक चर्चा का भी आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे मार्केटिंग एक्सपर्ट, लेखक, अभिनेता और कॉलमिस्ट श्री सुहेल सेठ, जबकि विशिष्ट अतिथि थे हिंदुस्तान टाइम्स के एडिटर-इन-चीफ श्री सुकुमार रंगनाथन और अध्यक्षता की पांचजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर (Hitesh Shankar)। कार्यक्रम का संचालन और स्वागत भाषण श्री अनुराग पुनेठा ने किया। इस प्रदर्शनी के क्यूरेटर हैं श्री इक़बाल रिज़वी। यह अनूठी प्रदर्शनी आईजीएनसीए की दर्शनम् गैलरी में 28 मार्च तक चलेगी।
इस अवसर पर सुहेल सेठ ने कहा “विज्ञापन किसी देश की सांस्कृतिक प्रवृत्ति का बैरोमीटर हैं। यह मानना गलत है कि ये केवल उपभोक्ता प्रवृत्ति का प्रतिबिंब हैं। उपभोक्तावाद अक्सर संस्कृति से उपजा होता है और भारतीय त्योहारों के दौरान, दिवाली, होली, ईद, क्रिसमस के दौरान सबसे अधिक पैसा खर्च करते हैं। इसलिए बहुत सारा खर्च संस्कृति से जुड़ा हुआ है।”
उन्होंने कहा कि लोग जो सबसे बड़ी गलती करते हैं, वह यह है कि वे मानते हैं कि विज्ञापन का मतलब ब्रांड बेचना है। लेकिन ऐसा नहीं है। विज्ञापन का मकसद लोगों से जुड़ाव स्थापित करना है। हो सकता है कि आप आज मेरा ब्रांड न खरीदें, लेकिन क्या आप कल इसे खरीदने के लिए तैयार होंगे? तो यह लगभग बीज बोने जैसा है। हाल ही में संपन्न हुए महाकुंभ का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि “आपने अभी-अभी सबसे बड़ा मार्केटिंग उत्सव देखा, जो तीन नदियों के संगम पर संपन्न हुआ। उस उत्सव की आध्यात्मिकता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, लेकिन आपको यह भी देखना चाहिए कि कुम्भ के इर्द-गिर्द क्या हो रहा था। उस राज्य के मुख्यमंत्री ने आधिकारिक तौर पर कहा है कि महाकुम्भ से उस राज्य में पर्यटन को बढ़ावा मिला है।”
अपने संबोधन के अंत में सुहेल सेठ ने कहा कि “मुझे सबसे बड़ा अफ़सोस है कि आज भारतीय विज्ञापन से हास्य गायब हो गया है।” उन्होंने युवाओं से व्यापक रूप से पढ़ने का आग्रह किया और इस बात पर ज़ोर दिया कि विज्ञापनों को सीखने के स्रोत के रूप में गहरी दिलचस्पी के साथ देखा जाना चाहिए।
सुकुमार रंगनाथन ने वेंस पैकार्ड की किताब ‘द हिडन पर्सुएडर्स’ का हवाला देते हुए बताया कि आप कैसे लोगों की राय को आकार दे सकते हैं और उनसे वह करवा सकते हैं, जो आप करना चाहते हैं। लेकिन पिछले दशक में इंटरनेट ने इस गतिशीलता को बदल दिया है। पिछले दशक में इंटरनेट की बदौलत यह हुआ है कि कंपनियां, व्यक्ति, राजनीतिक दल, संगठन सभी अपने नैरेटिव के मास्टर बन गए हैं। पहले ऐसा नहीं था। पहले, आपको एक मीडिया की आवश्यकता होती थी, जो एक समाचार पत्र या पत्रिका या एक टीवी चैनल होता था। फिर आपको कुछ ऐसे लोगों की आवश्यकता होती थी, जो आपके लिए संदेश तैयार करते थे यानी विज्ञापन एजेंसियां की आवश्यकता होती थी। लेकिन इंटरनेट ने इन सभी बातों को समीकरण से हटा दिया है। इसलिए आप सीधे ग्राहक या उपभोक्ता के पास जाते हैं और अपना नैरेटिव खुद गढ़ सकते हैं।
आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने अपने वीडियो संदेश में कहा कि विज्ञापन भी एक कला है। लेकिन विज्ञापनों का डॉक्यूमेंटेशन नहीं होता, आर्काइविंग नहीं होती। उन्होंने विज्ञापनों पर शोध और उनके अध्ययन पर जोर देते हुए कहा कि एडवर्टाइजिंग के माध्यम से हमारे समाज की मानसिकता में जो बदलाव आता है, उसके बारे में भी हम बात कर सकते हैं। विज्ञापन मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिवर्तन को प्रतिबिंबित करते हैं। ये पूरा जगत एडवर्टाइजिंग के माध्यम से आगे बढ़ता है। ये जो मार्केटिंग की दुनिया है, बाजारीकरण की दुनिया है, वो विज्ञापनों के जरिये आगे बढ़ती है। अपने संदेश में उन्होंने विचार के लिए एक सूत्र भी दिया कि जब इतनी सारी विविधता किसी एक रूप (विज्ञापन) में है, तो क्या उसे कला रूप की संज्ञा नहीं दी जानी चाहिए! विज्ञापन फिल्म नहीं है, बल्कि उससे इतर अपने आप में एक पूरा विकसित कला शास्त्र है।
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