माता सीता ने बताया कि पिण्डदान, तर्पण का एक निर्धारित समय होता है! वराह अवतार से मानी गई है श्राद्ध की प्रथा 

Tue, Sep 24 , 2024, 05:15 PM

Source : Hamara Mahanagar Desk

प्रयागराज। पितरों की आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक पिंडदान और तर्पण (Pind Daan and Tarpan) को श्राद्ध कहा जाता है। श्राद्ध की परंपरा (tradition of Shradh) कब और कैसे शुरू हुई, इसकी मान्यताओं को लेकर तमाम मतभेद हैं।

वैदिक ग्रंथों में “ श्राद्ध” शब्द का उल्लेख नहीं मिलता लेकिन एक शब्द “पितृयज्ञ(Pitryagya)” को विस्तार मिला जिसे आगे चलकर पितरों से जोड़ा गया जिसे श्राद्ध कहा जाने लगा। श्राद्ध परंपरा का कोई तथ्यात्मक प्रमाण नहीं मिलता है। इसकी मान्यताओं को लेकर तमाम मतभेद है। वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण और अन्य धार्मिक ग्रंथों में इसके बारे में अलग- अलग वर्णन मिलता है। पितृ पक्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष (Shukla Paksha of Bhadrapada month) की पूर्णिमा से शुरू होकर सर्वपितृ अमावस्या (Sarvapitre Amavasya) तक चलता है।

ऋग्वेद में पितृ-यज्ञ का उल्लेख मिलता है और विभिन्न देवी देवताओं को संबोधित वैदिक ऋचाओं में अनेक पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाई गई हैं। ऋग्वेद के दसवें मंडल में एक पितृ सूक्त है जिससे पितरों का आह्वान किया जाता है वे पूजकों (वंशजों) को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें। अत्यंत तर्कशील एवं संभव अनुमान यह निकाला जा सकता है कि पितरों से संबंधित कार्य के विशिष्ट नाम की आवश्यकता प्राचीन काल में नहीं समझी गयी। जब पितरों के सम्मान में किए गए संख्या में अधिकता हुई तब श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति हुई।

संस्कृत से विद्यावारिधि (पीएचडी) करने वाले व्याकरणाचार्य डा गायत्री प्रसाद पाण्डेय ने बताया कि वाल्मिकि रामायण और रामचरित मानस के अनुसार त्रेता युग में श्रीराम ने और द्वापर में महाभारत के अनुशासन पर्व की एक कथा के अनुसार अत्रि मुनि का श्राद्ध के बारे में चर्चा मिलती है। उसके बाद श्राद्ध परंपरा शुरू हुई। यह परंपरा प्राचीनकाल से चली आ रही है लेकिन “विष्णुधर्मोत्तर पुराण” कुछ अलग ही बताता है जिसकी तुलना सार्थक और अन्य से भिन्न है।

डा पाण्डेय ने बताया कि मार्कण्डेय ऋषि द्वारा रचित “विष्णुधर्मोत्तर पुराण” में बताया गया है कि श्राद्ध प्रथा का संस्थापन विष्णु के वराह अवतार के समय हुआ और विष्णु को पिता, पितामह और प्रपितामह को दिए गये तीन पिण्डों में अवस्थित मानना चाहिए। इससे अनुमान लगाया जा सकता है। यह मानव जाति के पिता मनु के समान ही प्राचीन है। उन्होने पुराणों का हवाला देते हुए बताया कि ब्रह्मा ने अपने शरीर के दो भागों से पुरुष और स्त्री की उत्पत्ति की थी। पुरुष का नाम स्वयंभुव मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। मनु और शतरूपा की संतानों से ही संसार के सभी लोगों की उत्पत्ति हुई। संभवतया तभी से यह परंपरा शुरू हुयी क्योंकि मृत जनों का ही श्राद्ध किया जाता है।

डा पाण्डेय ने तमाम ग्रंथो की रचना किया है जिसमें संस्कृत में सात ग्रंथ के अलावा संस्कृत में भाष्य एवं अनुदित दो ग्रंथ अष्टवक्रगीता-रहस्यम,(दर्शन ग्रंथ) और श्रीमदभागव महापुराणम (धर्म गंथ), दो हिन्दी ग्रंथ,एवं कई ग्रंथों का संपादन किया है। डा पाण्डेय को उनकी रचना के लिए नौ पुरस्कार मिले है जिसमें मुख्यरूप से प्रदेश सरकार द्वारा अष्टवक्रगीतारहस्यम कृति के लिए विशेष पुरस्कार, संस्कृत संस्थान से ‘‘यायावरीयम, बाणभट्ट,“ व्याकरण एवं वेदान्त”, धर्मसंघ वारणसी से ‘करपात्र गौरव’, श्रीकोडिमठ संस्कृत साहित्य पुरस्कार शामिल हैं।

जब भी पुराणों की तिथि का प्रसंग सामने आता है, तो वहां अनिश्चितता व्याप्त हो जाती है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के संदर्भ में भी इस कृति की निश्चित तिथि कहीं उल्लेखित नहीं है। इसकी उत्पत्ति 400 ईस्वी से पहले मानी जाती है।

व्याकरणाचार्य ने बताया कि वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस के अनुसार त्रेतायुग में जन्में श्री राम के द्वारा पिता राजा दशरथ का श्राद्ध करना बताया गया है जबकि पिंडदान आदि का संपादन माता सीता ने किया। उन्होंने बताया कि ‘पिण्डदान, तर्पण का एक समय निर्धारित होता है। उसी समय के भीतर करना उत्तम माना जाता है। माता सीता ने फल्गु नदी, वटवृक्ष, केतकी फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर गया में फल्गु नदी के किनारे श्री दशरथ जी महाराज का पिंडदान कर दिया। इससे राजा दशरथ की आत्मा प्रसन्न हुई और सीता जी को आशीर्वाद दिया।

महाभारत के अनुशासन पर्व की एक कथा के मुताबिक माना जाता है कि (गरूण पुराण) अत्रि मुनि ने सबसे पहले श्राद्ध के बारे में महर्षि निमी को ज्ञान दिया था। उन्ही के बाद अन्य ऋषि-मुनियों ने इसकी शुरूआत की। इसके अलावा श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को पांडवों के श्राद्ध करने की बात का जिक्र मिलता है तो कहीं दानवीर कर्ण को इस परंपरा की शुरूआत की बात कही जाती है।

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