नई दिल्ली: विपक्ष शासित कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और हिमाचल प्रदेश ने केंद्र सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि वह संविधान के मूल आधार को खत्म करना चाहती है। मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायमूर्ति सूर्य कांत, न्यायमूर्ति विक्रांत नाथ, न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति अतुल एस. चंदुरकर की संविधान पीठ के समक्ष राष्ट्रपति संदर्भ मामले में सातवें दिन की सुनवाई के दौरान ये आरोप लगाये गए।
कर्नाटक की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा कि केंद्र सरकार की दलीलें अप्रत्यक्ष रूप से संविधान के आधार, यानी कैबिनेट-सरकार और विधायिका के प्रति उत्तरदायित्व को खत्म करने के लिए थीं। उन्होंने कहा कि केंद्र का यह तर्क कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के पास विवेकाधिकार है, मूलतः त्रुटिपूर्ण है और कैबिनेट शासन व्यवस्था में मंत्रिमंडल सामूहिक रूप से विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि राज्यपाल मंत्रिमंडल से बाहर है।
उन्होंने कहा कि मंत्रिमंडल के माध्यम से लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना गया है।
पश्चिम बंगाल की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि यदि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए एक समय-सीमा निर्धारित की जाती है तो इसके लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता नहीं होगी; बल्कि, यह सुनिश्चित होगा कि अनुच्छेद 200 लागू रहे। उन्होंने कहा कि न्यायालय को ऐसे जाल में नहीं फंसना चाहिए जहाँ राज्यपाल संविधान के कामकाज में बाधा बन जाएँ।
यह मामला राष्ट्रपति के संदर्भ से संबंधित है, जिसमें संवैधानिक प्रश्न उठाए गए कि क्या न्यायालय राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित कर सकता है। सिब्बल ने कहा कि राज्य विधानमंडल की संप्रभुता संसद की संप्रभुता जितनी ही महत्वपूर्ण है और राज्यपाल को विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों में देरी करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। उन्होंने कहा, "आप मतभेद पैदा नहीं कर सकते, अन्यथा यह टूट जाएगा। संविधान की व्याख्या इस तरह से की जानी चाहिए कि वह व्यावहारिक हो।"
उन्होंने ज़ोर दिया कि अनुच्छेद 200 में यहाँ मुख्य शब्द "जितनी जल्दी हो सके" है, क्योंकि इसमें तात्कालिकता का तत्व है। अदालत ने मंगलवार को, कहा था कि इन सभी समय-सीमाओं को संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के प्रावधानों के साथ शामिल करने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। सिब्बल ने तर्क दिया कि न्यायिक रूप से प्रबंधनीय मानक हैं जो अनुच्छेद 200 में एकीकृत हैं, अर्थात, तात्कालिकता, तुरंत, जितनी जल्दी हो सके, बिना किसी देरी के। उन्होंने कहा, "यदि आप कोई समय-सीमा देते हैं तो आप संविधान में संशोधन कर रहे हैं, इसका उत्तर है नहीं," उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए है कि अनुच्छेद 200 कार्य करे।
उन्होंने यह भी कहा कि जब कोई विधेयक विधायिका द्वारा पारित किया जाता है तो उसकी संवैधानिकता की एक पूर्वधारणा होती है, जिसका परीक्षण न्यायालय में किया जाना चाहिए। पीठ ने हालांकि टिप्पणी की कि राज्यपाल को यह देखने के लिए अपने विवेक का प्रयोग करना होगा कि विधेयक प्रतिकूल है या नहीं। पीठ ने कहा कि केवल डाकिया या एक सुपर विधायी निकाय नहीं हो सकते। सिब्बल ने यह भी दलील दी कि विधेयक के रूप में जनता की इच्छा राज्यपालों और राष्ट्रपति की "मनमर्जी" के अधीन नहीं हो सकती, क्योंकि कार्यपालिका को विधायी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने से रोका गया किया गया है।
हिमाचल प्रदेश सरकार का पक्ष रखते हुए अधिवक्ता आनंद शर्मा ने दलील दी कि विधायिका सर्वोच्च है और न तो राष्ट्रपति और न ही राज्यपाल की कानून बनाने में कोई भूमिका है। उन्होंने कहा कि राज्यपाल वायसराय या गवर्नर-जनरल नहीं होते। वे मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे होते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि राज्यपाल के पद का उपयोग जनता की इच्छा को नकारने के लिए नहीं किया जा सकता। शीर्ष अदालत की संविधान पीठ इस मामले में गुरुवार को भी सुनवाई करेगी।
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Thu, Sep 04 , 2025, 09:09 AM