Jan Nisar Akhtar Death Anniversary: अपने गीतों को आम जिंदगी से जोड़कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया जां निसार अख्तर ने

Tue, Aug 19 , 2025, 12:39 PM

Source : Uni India

मुंबई: भारतीय सिनेमा जगत (Indian cinema world) में जां निसार अख्तर (Jan Nisar Akhtar) को एक ऐसे गीतकार-शायर के रूप याद किया जाता है, जिन्होंने अपने गीतों को आम जिंदगी से जोड़कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया। जां निसार अख्तर का जन्म वर्ष 1914 में मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर में हुआ था। उनके पिता मुस्तार खैराबादी (Mustar Khairabadi) भी एक मशहूर शायर थे। बचपन से ही शायरी से उनका गहरा रिश्ता था। उनके घर शेरो- शायरी की महफिलें सजा करती थी जिन्हें वह बड़े प्यार से सुना करते थे। अख्तर ने जिंदगी के उतार-चढ़ाव को बहुत करीब से देखा था इसलिये उनकी शायरी में जिंदगी के फसाने को बडी शिद्दत से महसूस किया जा सकता है ।उनकी गजल का एक शेर आज भी लोगों के जेहन में गूंजा करता है।
..इंकलाबो की घडी है ...
हर नही हां से बड़ी है ..

जां निसार अख्तर के गीतों की यह खूबी रही है कि वह अपनी बात बड़ी आसानी से दूसरो को समझा सकते थे। महज 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी पहली गजल लिखी। अख्तर की स्नाकोत्तर की शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से हुई। उनका निकाह 1943 में उस जमाने के एक और मशहूर शायर मजाज लखनवी की बहन साफिया सिराज उल हक से हुआ। वर्ष 1945 अख्तर के लिये खुशियों की सौगात लेकर आया। इस वर्ष उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी। जां निसार अख्तर ने अपने पुत्र का नाम रखा ..जादू..। यह नाम अख्तर के ही एक शेर की एक पंक्ति ..लंबा लंबा किसी जादू का फसाना होगा.. से लिया गया है और बाद मे जादू ..जावेद अख्तर..के नाम से फिल्म इंडस्ट्री में विख्यात हुये।

वर्ष 1947 मे विभाजन के बाद देश भर मे हो रहे सांप्रदायिक दंगो से तंग आकर जां निसार अख्तर ग्वालियर छोड़कर भोपाल आ गये। भोपाल मे वह मशहूर हामिदा कॉलेज मे उर्दू के प्रोफेसर नियुक्त किये गये लेकिन कुछ दिनों के बाद उनका मन वहां नही लगा और वह अपने सपनों को नया रूप देने के लिये वर्ष 1949 में मुंबई आ गये।मुंबई पहुंचने पर उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पडा। 

मुंबई में कुछ दिनों तक वह मशहूर उपन्यासकार इस्मत चुगतई के यहां रहने लगे । सबसे पहले फिल्म शिकायत के लिये उन्होंने गीत लिखे लेकिन इस फिल्म की असफलता के बाद उनका अपना फिल्मी कैरियर डूबता नजर आया ।लेकिन उन्होने हिम्मत नहीं हारी और अपना संघर्ष जारी रखा ।धीरे धीरे मुंबई में उनकी पहचान बनती गयी लेकिन वर्ष 1952 में उन्हें गहरा सदमा पहुंचा जब उनकी बेगम का इंतकाल हो गया।

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