Sholay 21st century: इक्कीसवीं सदी के नजरिए से पचास साल पुरानी शोले!

Thu, Aug 14 , 2025, 10:01 PM

Source : Uni India

कोलकाता। बॉलीवुड की ब्लॉकबस्टर फिल्म शोले 21वीं सदी (Blockbuster film Sholay 21st century) में भी अपनी लोकप्रियता बरकरार रखे हुए है और कल अपनी रिलीज़ की 50वीं वर्षगांठ मना (50th anniversary celebrated) रही है। रमेश सिप्पी निर्देशित 1975 की यह फिल्म भारतीय सिनेमाई इतिहास (Film Indian cinematic history) में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बनी है, जिसमें एक्शन, रोमांस, कॉमेडी और करुणा का सहज मिश्रण है।

जादवपुर विश्वविद्यालय में फिल्म अध्ययन के पूर्व प्रोफेसर संजय मुखोपाध्याय कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में यह फिल्म विभिन्न शैलियों की सीमाओं को पार करते हुए एक सर्वोत्कृष्ट “मसाला” महाकाव्य के रूप में उभरी है, जो भारतीय मानस में गहराई से समाहित है।  मुखोपाध्याय ने सिप्पी की महान कृति के कालातीत आकर्षण पर विचार करते हुए कहा कि शोले “केवल एक फिल्म नहीं है, बल्कि भारतीय मानस में समाहित एक सांस्कृतिक घटना है।”

मुखोपाध्याय ने कहा कि “शोले” करी पश्चिमी शैली (dacoit genre) और समुराई परंपरा का एक दुर्लभ संगम था। “हालाँकि 'मुगल-ए-आज़म' और 'आवारा' जैसी कई ब्लॉकबस्टर फ़िल्में हैं, 'शोले' की स्थिति अलग है। दरअसल, भारत में दो तरह की फ़िल्में बनती हैं। एक सत्यजीत रे की 1955 में आई 'पाथेर पांचाली' जैसी है, जिसे हम सिनेमा में कला का प्रतीक कहते हैं, और दूसरी तरह की फ़िल्मों में 'शोले' शामिल है, जो उसके ठीक 20 साल बाद रिलीज़ हुई, जिसे हम लोकप्रिय सिनेमा का प्रतीक कहते हैं।”

उन्होंने कहा ,“'शोले' एक पितृसत्तात्मक समाज के इतिहास को दर्शाती है, इसलिए यह एक तरह की 'राष्ट्रीय जीवनी' बन गई है, जो 'हम आपके हैं कौन', 'अल्लाह रक्खा' या किसी अन्य सिनेमा में नहीं मिलती। यह लोकप्रिय आख्यान की आड़ में इतिहास का एक प्रकार का वर्णन है!” मुखोपाध्याय ने फिल्म की तकनीकी कुशलता की सराहना की, द्वारका दिवेचा की पैनोरमिक सिनेमैटोग्राफी जिसने रामगढ़ के पथरीले इलाके को लगभग पौराणिक बना दिया, आर.डी. बर्मन का 'महबूबा महबूबा' जैसा संगीत और कई अन्य ट्रैक जिन्होंने ख़तरनाक और उदासी को धुन में पिरोया, और इसके साउंड डिज़ाइन और शोर प्रभावों की अभूतपूर्व सटीकता।

उन्होंने कहा, “सिनेमैटोग्राफी की बात करें तो, बेहद लंबे और क्लोज़-अप शॉट्स देखकर दंग रह जाना पड़ता है। ये अनोखी चीज़ें, जिनकी गणना बहुत सटीक ढंग से की गई है, जब एक साथ मिलती हैं तो फिल्म को आकार देती हैं और जीवन का एक ताना-बाना बुनती हैं।”मुखोपाध्याय ने शोले को एक फॉर्मूलाबद्ध फिल्म बताकर खारिज कर दिया। रमेश सिप्पी ने जीवन को एक अलग नज़रिए से पेश करके चतुराई दिखाई। आप साधारण लोगों को साधारण जीवन जीते हुए देखते हैं। सभी भारतीय जीवन शैली से जुड़े थे। इसीलिए यह दर्शकों को इतना पसंद आया। खलनायक गब्बर सिंह (अमजद खान द्वारा अभिनीत) का चरित्र भी रामायण के रावण जैसा है। वह कभी उपहास का पात्र नहीं बनता। हमें उसके खलनायक काल के बारे में कभी पता नहीं चलता, फिर भी कभी-कभी हमें उससे सहानुभूति हो जाती है।

श्री मुखोपाध्याय ने राधा (जया भादुड़ी) और बसंती (हेमा मालिनी) की जोड़ी को “पुरुषों के जीवन में उनके पीछे चलने वाली परछाईं” बताया। उन्होंने आगे कहा, “राधा और बसंती ठाकुर साहब (संजीव कुमार), जय (अमिताभ बच्चन), वीरू (धर्मेंद्र) और यहाँ तक कि गब्बर के हाथों की कठपुतली जैसी थीं। हालाँकि हम बसंती को एक तांगे वाले के रूप में देख सकते हैं, लेकिन वीरू की उपस्थिति में वह काफी शांत रहती है। विधवा राधा भी काफी शांत स्वभाव की थी और केवल अनकहे शब्दों में ही अपने प्यार का इज़हार करती थी।” मुखोपाध्याय ने कहा, “अगर आप इसे 21वीं सदी के परिदृश्य में देखें, तो आप बसंती और राधा को भूले हुए अतीत के अवशेष मानेंगे। हमारे बीते दिन कितने प्यारे थे! अगर आज 'शोले' का रीमेक बनाया जाए, तो दोनों महिलाओं का कायापलट हो जाएगा और उन्हें एक अलग परिदृश्य में रखा जाएगा।”

इंटरनेट युग ने “शोले” को एक विचित्र जीवन दिया है। प्रसिद्ध लेखक-सह-अनुवादक मुखोपाध्याय ने कहा, “यह एकमात्र ऐसी फिल्म है जिसने हजारों विज्ञापन बनाए हैं। शोले के वाक्यांश जैसे 'कितने आदमी थे?' या 'ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर', ये मुहावरे हमारी शब्दावली का हिस्सा बन गए हैं।मुखोपाध्याय के अनुसार,“शोले” भारतीय जीवन का एक हिस्सा है।उन्होंने कहा: “शेखर कपूर ने एक बार मज़ाक में कहा था,“हमारे पास शोले बी.सी. और शोले ए.डी. है,” जिससे भारतीयों के मन पर शोले का गहरा प्रभाव झलकता है। मुखोपाध्याय ने कहा कि हालांकि यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि शोले हर क्षेत्र के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन यह एक ऐसा अध्याय है जिसे लोगों की स्मृति से मिटाया नहीं जा सकता।

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