नयी दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत दोषी ठहराए गए एक श्रीलंकाई तमिल नागरिक की हिरासत के मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए कहा कि 'भारत कोई धर्मशाला नहीं है।' न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की, जिसमें याचिकाकर्ता को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत उसकी सजा पूरी होने के बाद निर्वासित करने का निर्देश दिया गया है।
याचिकाकर्ता लिट्टे के पूर्व कार्यकर्ता ने इस आधार पर राहत की गुहार लगाई थी कि उसे डर है कि अगर उसे श्रीलंका वापस भेजा गया तो उसे सताया जाएगा, गिरफ्तार किया जाएगा और यातना दी जाएगी। पीठ के समक्ष उसके अधिवक्ता ने दलील दी कि सजा पूरी होने के बाद भी वह करीब तीन साल हिरासत में बिता चुका हैं, लेकिन उन्हें वापस भेजने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। अधिवक्ता ने कहा कि याचिकाकर्ता का परिवार भारत में बस गया है। परिवार में उनकी बीमार पत्नी और जन्मजात हृदय रोग से पीड़ित बेटा शामिल है।
हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। न्यायमूर्ति दत्ता ने टिप्पणी की, 'क्या भारत को दुनिया के सभी लोगों के लिए शरणस्थली बनना चाहिए ,हम पहले से ही 140 करोड़ की आबादी से निपट रहे हैं। यह कोई धर्मशाला नहीं है कि हम हर जगह से विदेशी नागरिकों का स्वागत कर सकें।' न्यायालय ने याचिकाकर्ता के भारत में बसने के कानूनी अधिकार पर सवाल उठाया। पीठ की ओर से न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा, 'यहां बसने का आपका क्या अधिकार है , अनुच्छेद 19 के तहत अधिकार केवल नागरिकों को ही उपलब्ध है। कानून के तहत उचित प्रक्रिया के अनुसार आपकी स्वतंत्रता पर रोक लगाई गई है, अनुच्छेद 21 का कोई उल्लंघन नहीं है।'
याचिकाकर्ता के वकील ने जब फिर से दलील दी कि उनके मुवक्किल को श्रीलंका में जीवन के लिए खतरा पैदा करने वाली स्थिति का सामना करना पड़ रहा है, तो पीठ ने रूखेपन से जवाब दिया, 'किसी दूसरे देश में चले जाओ।' न्यायालय ने रोहिंग्या शरणार्थियों पर अपने हालिया रुख के साथ समानताएं दर्शाईं, जहां उसने निर्वासन प्रयासों को रोकने से भी इनकार कर दिया। अदालत ने दोहराया कि न्यायपालिका को कानून के दायरे में काम करना चाहिए न कि केवल भावनात्मक या मानवीय आधार पर। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों में बिल्कुल भी नहीं।
याचिकाकर्ता को 2015 में तमिलनाडु पुलिस की क्यू शाखा ने एलटीटीई समर्थक होने के संदेह में गिरफ्तार किया था। उसे 2018 में यूएपीए की धारा 10 के तहत दोषी ठहराया गया और 10 साल जेल की सजा सुनाई गई। मद्रास उच्च न्यायालय ने 2022 में उसकी सजा को घटाकर सात साल कर दिया, लेकिन निर्देश दिया कि उसे एक शरणार्थी शिविर में रखा जाए और अवधि पूरी होने के तुरंत बाद निर्वासित कर दिया जाए।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि श्रीलंका में 'ब्लैक-गजटेड' होने के कारण उसे वापस लौटने पर गंभीर संकट का सामना करना पड़ सकता है। शीर्ष अदालत ने मानवीय चिंताओं के बावजूद इस कानूनी सिद्धांत को बरकरार रखा कि विदेशी नागरिकों को भारत में निवास करने का स्वतः अधिकार नहीं है, विशेष रूप से आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत दोषी ठहराए जाने के बाद।
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Tue, May 20 , 2025, 02:39 PM