Rakshabandhan Bagwal: रक्षाबंधन के मौके पर कल उत्तराखंड में खेली जायेगी अद्भुत बग्वाल!

Fri, Aug 08 , 2025, 10:55 PM

Source : Uni India

नैनीताल। रक्षाबंधन के पावन मौके पर कल शनिवार को जहां पूरा देश भाई बहन के पवित्र प्यार के बंधन में बंधा रहेगा वहीं उत्तराखंड का एक क्षेत्र अपनी आराध्य देवी को मनाने के लिये अद्भुत बग्वाल खेलेगा। बग्वाल यानी पत्थर युद्ध। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल का यह क्षेत्र है देवीधूरा। देवीधूरा में रक्षाबंधन के दिन हर साल बग्वाल यानी पत्थर युद्ध खेला जाता है। रणबांकुरे अपने आराध्य देवी (Raksha Bandhan) को मनाने के लिए बग्वाल खेलते हैं। हर साल बग्वाल के साक्षी लाखों लोग होते हैं।

मान्यता है कि बग्वाल तब तक खेली जाती है जब तक आराध्य देवी खुश नहीं हो जाती है। ऐतिहासिक देवीधुरा कुमाऊं मंडल के चंपावत जनपद का छोटा सा कस्बा है। बग्वाल को असाड़ी कौतिक के नाम से भी जाना जाता है। देवीधुरा के खोलीखांड मैदान में रक्षा बंधन (Raksha Bandhan) के अवसर पर हर साल बग्वाल खेली जाती है। चंपावत के चार खाम एवं सात थोक के लोग इस अद्भुत खेल को खेलते हैं। मान्यता है कि पौराणिक काल से देवीधूरा में बग्वाल का आयोजन किया जाता है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार देवीधुरा के चार खामों में अपनी आराध्या बाराही देवी को मनाने के लिए नर बलि देने की परंपरा थी। हर साल एक खाम की ओर से नर बलि दी जाती थी।

बताया जाता है एक बार चमियाल खाम के एक परिवार को नर बलि देनी थी। परिवार में एक वृद्धा एवं उसका पौत्र ही जीवित था। वृद्धा के सामने नर पौत्र और स्वयं की बलि देने का संकट आ गया। बताया जाता है कि वृद्धा ने अपने पौत्र की रक्षा के लिए मां बाराही की स्तुति की। मां बाराही ने वृद्धा को दर्शन दिये और कहा जाता है कि देवी ने वृद्धा को मंदिर से सटे खोलीखांड मैदान में बग्वाल (stone war) खेलने के निर्देश दिये। यह भी मान्यता है कि तब से नर बलि देने की प्रथा बंद हो गयी और बग्वाल की परंपरा शुरू हो गयी।

परंपरा के अनुसार बग्वाल खेलने के लिये चारों खामों के रणबांकरे शामिल होते हैं। इनमें युवा एवं बुजुर्ग सब शामिल होते हैं। लमगड़िया व बालिग खाम एक तरफ जबकि गहड़वाल व चमियाल खाम के रणबांकुरे दूसरी तरफ होते हैं। खास बात यह है कि बग्वाल आपसी भाईचारे के साथ खेली जाती है। दोनों पक्षों के रणबांकुरे सज धजकर मंदिर परिसर में आते हैं। सभी पहले देवी की आराधना करते हैं। इसके बाद यह अद्भुत खेल शुरू हो जाता है। रणबांकुरे अपने साथ पत्थर लेकर आते हैं।

मंदिर के पुजारी के निर्देश पर बग्वाल शुरू होती है और इसी के साथ पत्थरों की वर्षा शुरू हो जाती है। दोनों ओर के रणबांकुरे पूरी शिद्दत व ताकत से एक दूसरे पर भरपूर पत्थर चलाते हैं। यह सिलसिला मंदिर के पुजारी के कहने पर ही रूकता है।इस अद्भुत खेल के साक्षी हर साल लाखों लोग होते हैं। उत्तराखंड के अलावा बाहर से भी श्रद्धालु व पर्यटक इस मौके पर यहां जुटते हैं। इस खेल में कोई किसी का दुश्मन नहीं होता है। फिर भी काफी लोग घायल होते हैं।

बग्वाल के अंत में सभी लोग गले मिलते हैं। घायलों को प्राथमिक उपचार देने के लिये सरकारी अमला मौके पर जुटा रहता है। जानकारों के अनुसार बग्वाल खेलने के लिये कोई नियम व कायदा कानून तय नहीं है लेकिन तन व मन की शुचिता अवश्य होनी चाहिए। एक सप्ताह पहले से सभी रणबांकुरे सात्विक जीवन यापन करते हैं। मांस-मदिरा व तामसिक चीजों से दूर रहते हैं। खेल से पहले सभी अपनी आराध्या मां बाराही का आशीर्वाद लेते हैं।

बग्वाल की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस मौके पर सभी अप्रवासी देवीधुरा अपने गांव आता और बग्वाल का भागीदार बनता है। हैं। बग्वाल के अगले दिन मंदिर के पुजारी आंखों में पट्टी बांधकर मां बाराही की पूजा करते हैं। यह भी मान्यता है कि मां बाराही की मूर्ति को नंगी आंखो से देखने की परंपरा नहीं है और कहा जाता है कि इससे आंखों की रोशनी को नुकसान हो सकता है। अगले दिन मां की शोभायात्रा के साथ असाड़ी कौतिक खत्म हो जाता है। यहां खास बात यह है कि बग्वाल में घायल लोगों पर आज भी बिच्छु घास लगाने की परंपरा है। पत्थरों से बचने के लिये वृद्ध रणबांकुरे अपने साथ बड़े-बड़े छत्तड़े लेकर आते हैं। सचमुच में आज भी बग्वाल का यह दृश्य बेहद मार्मिक होता है। उच्च न्यायालय के आदेश से पिछले कुछ समय से बग्वाल का प्रारंभ फल और फूलों से किया जाता है।

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