भारतीय संविधान की 75 वर्षों की यात्रा महत्वपूर्ण सफलताओं की कहानी: गवई

Thu, Jun 19 , 2025, 02:07 PM

Source : Uni India

नयी दिल्ली। उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई (Justice B R Gavai) ने भारतीय संविधान के पिछले 75 वर्षों की यात्रा को महान महत्वाकांक्षा और महत्वपूर्ण सफलताओं की कहानी करार देते हुए कहा कि सामाजिक-आर्थिक न्याय (socio-economic justice) प्रदान करने में इस अवधि की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने इटली के प्रमुख शहर ‘मिलान’ में ‘सामाजिक-आर्थिक न्याय प्रदान करने में संविधान की भूमिका’ विषय पर आयोजित एक कार्यक्रम में अपने संबोधन के दौरान यह विचार व्यक्त किया। उन्होंने बुधवार को आयोजित कार्यक्रम में कहा, “भूमि और कृषि सुधारों ने सामंती संरचनाओं को खत्म करने, जड़ जमाए पदानुक्रमों की जकड़न को तोड़ने और भूमि और आजीविका तक पहुंच को फिर से वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 

अनगिनत भूमिहीन और हाशिए पर पड़े व्यक्तियों, विशेष रूप से उत्पीड़ित जातियों और समुदायों के लिए ये सुधार आर्थिक स्वतंत्रता और सम्मान हासिल करने का पहला वास्तविक अवसर था।” मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “समाज के बड़े हिस्से को हाशिए पर रखने वाली संरचनात्मक असमानताओं को संबोधित किए बिना कोई भी राष्ट्र वास्तव में प्रगतिशील या लोकतांत्रिक होने का दावा नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, सामाजिक-आर्थिक न्याय दीर्घकालिक स्थिरता, सामाजिक सामंजस्य और सतत विकास प्राप्त करने के लिए एक व्यावहारिक आवश्यकता है।”

मुख्य न्यायाधीश गवई ने स्वतंत्रता के बाद से किए गए न्यायिक और विधायी उपायों की सूची पर प्रकाश डालते हुए कहा, “हमें सामाजिक-आर्थिक न्याय की अनिवार्यता को समझना चाहिए। यह केवल पुनर्वितरण या कल्याण का मामला नहीं है। यह प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान के साथ जीने, अपनी पूरी मानवीय क्षमता का एहसास करने और देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में समान रूप से भाग लेने में सक्षम बनाने के बारे में है।” उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान को 26 जनवरी, 1950 को न केवल शासन के लिए एक राजनीतिक दस्तावेज के रूप में अपनाया गया था, बल्कि समाज के लिए एक वादा, एक क्रांतिकारी बयान और गरीबी, असमानता व सामाजिक विभाजन से पीड़ित औपनिवेशिक शासन के लंबे वर्षों से बाहर आने वाले देश के लिए आशा की किरण के रूप में अपनाया गया था।

उन्होंने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि भारतीय संसद ने सामाजिक-आर्थिक न्याय को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से कई तरह के कानून बनाए हैं। इनमें सामाजिक रूप से दमनकारी और भेदभावपूर्ण प्रथाओं को प्रतिबंधित करने वाले कानून शामिल हैं उदाहरण के तौर पर- बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, दहेज निषेध अधिनियम और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम।

उन्होंने कहा कि इनमें से प्रत्येक कानून ऐतिहासिक अन्याय और संरचनात्मक असमानताओं को दूर करने और सभी नागरिकों की गरिमा और अधिकारों को बनाए रखने वाले कानूनी ढांचे का निर्माण करने के लिए एक सचेत प्रयास का प्रतिनिधित्व करता है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि 1970 के दशक के उत्तरार्ध से उच्चतम न्यायालय ने राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का हवाला देकर संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत ‘जीवन के अधिकार’ की व्याख्या को काफी हद तक व्यापक बना दिया। न्यायालय ने माना कि जीवन का अधिकार केवल शारीरिक अस्तित्व के बारे में नहीं है, बल्कि इसमें सम्मान के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है। अदालत ने इस समझ को सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल करने के लिए दायरा बढ़ाया, जो अक्सर निर्देशक सिद्धांतों से समर्थन प्राप्त करते हैं।

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